संगीत का कोई मज़हब, कोई ज़बान नहीं होती। 'रेडियोवाणी' ब्लॉग है लोकप्रियता से इतर कुछ अनमोल, बेमिसाल रचनाओं पर बातें करने का। बीते नौ बरस से जारी है 'रेडियोवाणी' का सफर।

Sunday, April 24, 2016

रामधारी सिंह 'दिनकर' के स्वर में उनकी कविता 'नीलकुसुम'

डॉ. हरिवंश राय 'बच्‍चन', सुमित्रा नंदन पंत और रामधारी सिंह 'दिनकर'
आज राष्‍ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' की पुण्‍यतिथि है।
'दिनकर' की कविताएं ना सिर्फ पाठ्यक्रम में हमारे संग रही हैं बल्कि वैसे भी समय-समय पर वो हमारे साथ चलते हैं। धन्‍यवाद करना चाहिए हिंदी के उन अध्‍यापकों का, जिनकी वजह से स्‍कूल के ज़माने में हम ओजपूर्ण वाणी में ये पंक्तियां पढ़कर सुनाते थे--

वैराग्‍य छोड़ बांहों की विभा संभालो
चट्टानों की छाती से दूध निकालो
है रूकी जहां भी धार शिलाएं तोड़ो
पियूष चंद्रमाओं को पकड़ निचोड़ो 

अफ़सोस नई पीढ़ी के पास शायद याद करने के लिए इस तरह की स्‍मृतियां नहीं होंगी। और ये अपराध हमारा भी होगा।

अपनी कविता 'समर शेष है' में वो लिखते हैं--

समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्‍याघ्र
जो तटस्‍थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।।

समर शेष है को रेडियोवाणी के दूसरे पन्‍ने पर यहां पढ़ा जा सकता है।


'रेडियोवाणी' पर हम यूं तो गीत-संगीत की बातें करते रहे हैं। पर अब बीच-बीच में कविता की भी बात की जायेगी। 'दिनकर' कितने लोगों के प्रिय कवि रहे हैं, इसकी मिसाल ये है कि विविध भारती के लिए एक बार बातचीत के दौरान जाने-माने अभिनेता शत्रुघ्‍न सिन्‍हा ने धारा-प्रवाह 'रश्मिरथि' सुनायी थी और कहा था इससे उन्‍हें हमेशा प्रेरणा मिलती रही है। बहरहाल.. आज हम आपके लिए लाये हैं 'दिनकर' के स्‍वर में उनकी कविता 'नीलकुसुम'। आपको बता दें कि ये रिकॉर्डिंग बी.बी.सी. ने सन 1974 की थी और हमने यू-ट्यूब से ली है।

Kavita: Neel-Kusum
Poet: Ramdhari singh "Dinkar"
Duration: 3 14  





ये रही कविता की इबारत।
साभार कविताकोश के इस पेज से।

‘‘है यहाँ तिमिर, आगे भी ऐसा ही तम है,
तुम नील कुसुम के लिए कहाँ तक जाओगे ?
जो गया, आज तक नहीं कभी वह लौट सका,
नादान मर्द ! क्यों अपनी जान गँवाओगे ?

प्रेमिका ! अरे, उन शोख़ बुतों का क्या कहना !
वे तो यों ही उन्माद जगाया करती हैं;
पुतली से लेतीं बाँध प्राण की डोर प्रथम,
पीछे चुम्बन पर क़ैद लगया करती हैं।

इनमें से किसने कहा, चाँद से कम लूँगी ?
पर, चाँद तोड़ कर कौन मही पर लाया है ?
किसके मन की कल्पना गोद में बैठ सकी ?
किसकी जहाज़ फिर देश लौट कर आया है ?’’

ओ नीतिकार ! तुम झूठ नहीं कहते होगे,
बेकार मगर, पागलों को ज्ञान सिखाना है;
मरने का होगा ख़ौफ़, मौत की छाती में
जिसको अपनी ज़िन्दगी ढूँढ़ने जाना है ?

औ’ सुना कहाँ तुमने कि ज़िन्दगी कहते हैं,
सपनों ने देखा जिसे, उसे पा जाने को ?
इच्छाओं की मूर्तियाँ घूमतीं जो मन में,
उनको उतार मिट्टी पर गले लगाने को ?

ज़िन्दगी, आह ! वह एक झलक रंगीनी की,
नंगी उँगली जिसको न कभी छू पाती है,
हम जभी हाँफते हुए चोटियों पर चढ़ते,
वह खोल पंख चोटियाँ छोड़ उड़ जाती है।

रंगीनी की वह एक झलक, जिसके पीछे
है मच हुई आपा-आपी मस्तानों में,
वह एक दीप जिसके पीछे है डूब रहीं
दीवानों की किश्तियाँ कठिन तूफ़ानों में।

डूबती हुई किश्तियाँ ! और यह किलकारी !
ओ नीतिकार ! क्या मौत इसी को कहते हैं ?
है यही ख़ौफ़, जिससे डरकर जीनेवाले
पानी से अपना पाँव समेटे रहते हैं ?

ज़िन्दगी गोद में उठा-उठा हलराती है
आशाओं की भीषिका झेलनेवालों को;
औ; बड़े शौक़ से मौत पिलाती है जीवन
अपनी छाती से लिपट खेलनेवालों को।

तुम लाशें गिनते रहे खोजनेवालों की,
लेकिन, उनकी असलियत नहीं पहचान सके;
मुरदों में केवल यही ज़िन्दगीवाले थे
जो फूल उतारे बिना लौट कर आ न सके।

हो जहाँ कहीं भी नील कुसुम की फुलवारी,
मैं एक फूल तो किसी तरह ले जाऊँगा,
जूडे में जब तक भेंट नहीं यह बाँध सकूँ,
किस तरह प्राण की मणि को गले लगाऊँगा ? 

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